स्वयंसेवक ही संघ की विशेषता, कर्तापन के भाव से दूरी बनानी होगी, जीवमात्र में है एक ही आत्मतत्व
टिमरनी। स्वयंसेवक निष्पक्ष, निरपेक्ष, निष्काम, निष्कलंक और निर्हंकार भाव से समाजोत्थान कार्य में संलग्न रहें, तो उनका आत्मबल और बढ़ेगा। वे और अधिक ऊर्जा से राष्ट्रीय कार्य में अपना योगदान दे सकेंगे। यह बात मुनिश्री वीर सागर जी महाराज ने कही। वे गुरुवार सुबह स्थानीय बड़ा जैन मन्दिर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, के स्वयंसेवकों से एक सवाल के जवाब में बोल रहे थे।
दरअसल, मुनिश्री से संघ के जिला प्रसार- प्रचार प्रमुख डॉ. विवेक अतुल भुस्कुटे ने सवाल किया था कि स्वयंसेवक सामाजिक कार्य करते समय संघर्ष का सामना करते हैं, यह संघर्ष मन का भी होता है और बाहर का भी। ऐसे में समय- समय पर वीतरागी महापुरुषों के साहित्य से प्रेरणा मिलती है। मुनिश्री के चरणों में निवेदन है कि वे मार्गदर्शन करें कि संघर्ष के समय स्वयंसेवक मन शांत कैसे रखें? सवाल सुनकर मुनिश्री ने जब बोलना शुरू किया तो वे जैन संत कम, संघ के वरिष्ठ प्रचारक ज्यादा लग रहे थे। उन्होंने कहा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाम में ही विशेषता है कि वे स्वयंसेवक हैं। समाज में कई संस्थाएं व एनजीओ काम कर रही हैं। समाज सेवा करना बड़ी बात नहीं है, बल्कि सेवा का उद्देश्य क्या है? यह बात मायने रखती है। संस्थाओं का सेवा के पीछे उद्देश्य पद, प्रतिष्ठा और पैसा कमाना हो सकता है। किंतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समाजोत्थान व राष्ट्रीय हित को सामने रख कर कार्य करता है। स्वयंसेवकों को पद, प्रतिष्ठा, पैसा तो दूर अपने नाम की भूख भी नहीं रहती। संघ की स्थापना डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने की, लेकिन उन्होंने अपने आपको संघ का सर्वेसर्वा नहीं माना। उन्होंने भगवा ध्वज को सर्वेसर्वा माना। संघ में भगवा ध्वज ही गुरु के रूप में स्वीकार किया गया है।
मुनिश्री ने जैन धर्म के णमोकार मंत्र का उदारहण देते हुए कहा, मंत्र में किसी व्यक्ति की वंदना नहीं की गई है। व्यक्तित्व की वंदना की गई है। जो इंद्रिय विजेता हो, जो आत्मा पर विजय प्राप्त कर ले, वही वंदनीय है।यह मंत्र ब्रह्मांड के सभी आध्यात्मिक प्राणियों को संबोधित करता है और उनसे आशीर्वाद मांगता है. यह मंत्र किसी व्यक्ति के नाम का उल्लेख नहीं करता, बल्कि विकसित और विकासमान आत्मस्वरूप का दर्शन करता है। मुनिश्री ने अपने गुरु आचार्य शिरोमणि विद्यासागर जी महाराज की विराट दृष्टि का भी उल्लेख किया। उन्होंने कहा आचार्य विद्यासागर जी की दृष्टि में धर्म से बड़ा राष्ट्र धर्म था। मानव धर्म से बड़ा प्राणी मात्र के कल्याण का भाव था। उनका मानना था कि मानव गोरा हो, काला हो,जाति का हो, विजाति हो, स्वदेशी हो या विदेशी हो। पशु हो, पक्षी हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जीव मात्र में एक ही आत्म तत्व रहता है।संघ के पर्यावरण जिला संयोजक रविंद्र यदुवंशी ने मुनिश्री से नागरिक कर्तव्य विषय पर मार्गदर्शन देने का निवेदन किया। इस पर मुनिश्री ने मुस्कुराते हुए " पंच परिवर्तन " के नाम गिनाए। उन्होंने कहा, कर्ता भाव से मुक्त होकर कर्तव्य को अपनाना होगा। अहम को छोड़ कर हम की ओर चलना होगा। आत्म चिंतन, आत्म विश्लेषण करना होगा। अनावश्यक उपयोगिता से बचना होगा। जीवन में संतुलन स्थापित करना होगा। असंतुलन से जीवन की शांति जाती रहती है। मुनिश्री ने राष्ट्र जीवन में, नगर, समाज व परिवार में पर्यावरण, जनसंख्या और विचारधारा के असंतुलन की बात की। जीवन में हर हाल में सामंजस्य स्थापित करने की कला आनी चाहिए। उन्होंने कहा, श्री राम ने अपने जीवन में सामंजस्य स्थापित किया था। वे वन गए तो कोई क्षोभ नहीं था। रावण को मारकर अयोध्या लौटे तो कोई अहंकार नहीं था। सम भाव में जिये।मुनिश्री के उद्बोधन के पूर्व उनका परिचय अलोक जैन ने दिया। संघ की ओर से मुनिश्री को श्रीफल अर्पण कर सम्मान डॉ. अतुल गोविंद भुस्कुटे, राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक राजेंद्र उपाध्याय, शिवदयाल यादव, गणेश शांडिल्य, राम गद्रे, आनंद मुजूमदार, ज्ञानदास गुर्जर सहित अन्य स्वयंसेवकों ने किया।
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